काव्यतरंगिनी
Saturday, August 9, 2025
इकलौती संतानें! - रक्षाबंधन विशेष
Wednesday, July 23, 2025
बिखराव की पूर्णता - मेरे प्यारे विद्यार्थियों को समर्पित
Thursday, August 11, 2022
सदा सुरक्षित घर आना
अपने सभी फौजी भाइयों के सुख , स्वास्थ्य व सुरक्षा की कामना करते हुए, रक्षाबंधन के उपलक्ष्य में उन्हें समर्पित करती हूँ ।
जल-थल-नभ के प्रहरी तुम, अद्भुत वीर जवान।
लहू
से सींचा देश को जिसने, तुम बलिदानी बलवान।
उज्ज्वल
भाग्य भारत के, तुम सौभाग्य हमारा।
ईश
करें चिरायु तुमको , सदा सुरक्षित घर आना ।
सीमाओं पर युद्ध छिड़े, प्रकृति कहर बरसाए।
जब भी विपदा आन पड़ी, तुम रक्षक बन आए।
सँजोया है बड़े जतन से, देश का ताना-बाना
ईश
करें चिरायु तुमको, सदा सुरक्षित घर आना।
माँ
भारती के लाल, तुम्हें अभिनंदन- वंदन है।
बढ़ो
विजय के पथ पर, संग भारत का जन-जन है।
पाखंडी
शत्रु घात लगाए, उसको धूल चटाना,
ईश
करें चिरायु तुमको, सदा सुरक्षित घर आना।
देखें
जब विजय तुम्हारी , सबका मन हर्षाता।
संकट
में जो तुम आते, सबका मन मुरझाता ।
बसे
हमारे प्राणों में तुम, मत अपने प्राण गवाना।
ईश
करें चिरायु तुमको, सदा सुरक्षित घर आना ।
रहते अपने घर से दूर, हम घर में रह पायें ।
सहते हो निर्मम प्रहार, कि हम त्योहार मनाएं ।
घर-घर कि खुशियाँ तुमसे, रहे घर खुशहाल तुम्हारा।
ईश करें चिरायु तुमको, सदा सुरक्षित घर आना ।
हर नाते से बढ़ कर, अटूट तुम्हारा नाता ।
हे
भारत के वीर, तुम सभी बहनों के भ्राता ।
देता
यह आशीष तुम्हें, कुटुंब विशाल तुम्हारा।
ईश
करें चिरायु तुमको, सदा सुरक्षित घर आना ।
लेकर
हम सब नाम तुम्हारा, अखंडित दीप जलातीं ।
राखी
के इस शुभ पर्व पर बरं-बार मनातीं ।
रक्षा
-कवच देश के तुम, रहे कवच अभेद तुम्हारा
ईश करें चिरायु तुमको, सदा सुरक्षित घर आना ।
"©" अनंता सिन्हा
११ /०८/२०२२
Thursday, August 26, 2021
जब कान्हा आए .................. (कहानी )
तेरह साल की रेणुका अपनी दादी के साथ भागवत कथा सुनने द्वारिकाधीश आयी थी। ऐसे तो उसके माता-पिता साथ आते पर उन्हें दफ्तर का कुछ ज़रूरी काम आ गया।
दादी को अकेले भेजा नहीं जा सकता था सो रेणुका को उनके साथ भेज दिया गया। रेणुका को अपनी दादी के साथ समय बिताना अच्छा लगता था और उसे कान्हा जी से भी बहुत लगाव था तो जब दादी ने कहा कि वहाँ कान्हा जी मिलते हैं तो वो खुशी-खुशी मान गयी ।
दोनों सवेरे से ही कथा पंडाल में जा बैठी थीं। रेणुका की अब एक ही प्रतीक्षा थी, कब उसके कान्हा जी उससे मिलने आयें और कब वो उनसे अपनी मनचाही इच्छा माँगे । कथा विराम लेने को थी की तभी एक बच्चा रेणुका के पास आ कर खड़ा हो गया। उसकी आयु कुछ चार- पाँच वर्ष की होगी।
उसने रेणुका से कुछ खाने को माँगा, रेणुका ने उसकी ओर देखा तो नज़रें टिकी रह गईं। उसका प्यारा साँवला सा चहरा, प्यारी सी अबोध मोहक आँखें और छरहरा शरीर। उसके तन पर कोई कपड़ा नहीं था सिवाय एक पीले फ़टे कच्छे के ।
"दादी, कुछ खाने के लिये है क्या" रेणुका ने पूछा, वह अभी भी एक टक उस बच्चे को देख रही थी।
"नहीं बेटा, पर कथा में जो प्रसाद मिलेगा, वो इसे खिला देंगे।" दादी ने कहा और फिर उस बच्चे की ओर देख कर मुस्करा दिया।
रेणुका ने बच्चे को अपने साथ बैठा लिया और प्यार करने लगी। जब प्रसाद मिला तो रेणुका ने उस बच्चे को खाने को दिया पर उसने कुछ खाया नहीं। "अरे खाओ" रेणुका ने कह कर उस बच्चे के कंधे पर हाथ रखा तो उसे उसका कंधा गर्म लगा। रेणुका ने उस बच्चे का माथा छुआ, वह बुखार से तप रहा था।
"दादी, इसे तो बुखार है। क्या करें?इसको हम अपने कमरे में ले चलें क्या? रेणुका ने पूछा, उसके स्वर में अनुरोध मिश्रित था।
"हाँ बेटा, ज़रा जल्दी ही चल" इतना कह कर दादी ने बच्चे को गोद उठाया उर रेणुका का हाथ पकड़ कर धर्मशाला की ओर चल पड़ीं।
कमरे तक पहुँचते पहुँचते दादी बहुत थक गयीं थीं, वे अपना घुटना पकड़ कर चारपाई पर बैठ गयीं।
"आप बैठ जाइये दादी, इसके माथे पर पट्टी मैं कर देती हूँ, आपको करते हुए देखा है।" रेणुका ने यह कह कर अपनी दादी को आराम तो दिया ही, उस बच्चे के साथ खेलने का अवसर ले लिया।
रेणुका ने उसे पास वाली चारपाई पर लेटा दिया और बड़े प्यार से पट्टी करने लगी। वह एक स्नेहिल स्वभाव की लड़की थी और उसे इस बच्चे से मित्रता करने की इच्छा हुई।
बच्चा बुखार से व्याकुल था तो रेणुका उसका मन बहलाने के लिये अपनी दादी का सिखाया हुआ एक भजन गाने लगी। उसके भजन गाते ही वह बच्चा खिलखिला कर ज़ोर ज़ोर से हँसने लगा।
"अरे!तुम हँस क्यूँ रहे हो?" रेणुका ने उस बच्चे से पूछा।
"तुम मुझे अभी भी बुला रही हो, मैं तो पहले ही आ चुका हूँ।" बच्चे ने खिलखिलाते हुए बड़े नटखट स्वर में जवाब दिया।
यह सुनकर रेणुका और उसकी दादी, दोनों चकित रह गईं। उसका बुखार उतर चुका था।
"तुम्हारा नाम क्या है?" रेणुका ने बच्चे से पूछा । "जो तुम पुकारो" बच्चे ने फिर अपनी गर्दन टेढ़ी कर के, एक भोली मुस्कान मुस्करा दी।रेणुका उसकी बातें सुनकर बड़ी आनंदित हो रही थी, उसने उस बच्चे के गाल पर हाथ रख कर दादी से पूछा "क्या नाम रखें इसका दादी?''
दादी ने कुछ सोंचा फिर निर्णय रेणुका पर छोड़ दिया " तू ही रख दे ना अपने नये मित्र का कोई प्यारा सा नाम"।
"कान्हा" रेणुका ने उत्साहित हो कर कहा।
"हाँ कान्हा सही रहेगा और फिर ये हमें द्वारिकाधीश में मिला है" दादी ने रेणुका के चुनाव की बड़ी प्रशंसा की।
दोनों को उसे इस नाम से पुकारने में बड़ा मज़ा आया।रेणुका ने कान्हा को अपने एक जोड़ी कपड़े पहना दिए।
दादी ने सोंचा की जिस एन.जी.ओ के द्वारा इस कथा का आयोजन हो रहा है, कल कान्हा को उसी को सौंप देंगे पर ऐसा हुआ नहीं। जाने ऐसा क्या था कान्हा में कि दोनों में से किसी को उसे दूर करने का मन ही नहीं होता था।
कान्हा के साथ खेलने और उसका ध्यान रखने में रेणुका यह बात बिल्कुल भूल गयी थी कि उसके कोई मित्र नहीं थे। बल्कि यही तो वह कान्हा जी से यहाँ माँगने आयी थी।
अगले दिन से वह कान्हा को भी अपने साथ कथा में ले जाने लगे। जब तीसरे दिन की कथा विराम ली तो तीनों कान्हा के लिए कपड़े खरीदने बाज़ार गये ।
दादी ने धर्मशाला में ही कहा था “ कान्हा के पास अपने एक जोड़ी कपड़े नहीं हैं, दो दिन से तेरे कुर्ते-सलवार में घूम रहा है”।
द्वारिका के बाज़ार की छटा देखते बनती थी। ऐसा एक दुकान नहीं था जिसका नाम भगवान कृष्ण पर न रखा गया हो। इन दुकानों में बिकते डांडिया, सजावटी दिए और मटके, रंग बिरंगे काम वाले लहंगे गुजरात की समृद्ध संस्कृति को दर्शा रहे थे।एक दुकान से कान्हा के कपड़े ले लिए गए, रेणुका ने अपने लिये भी एक सुंदर गुलाबी रंग का लहंगा खरीदा।
बाज़ार से लौटते समय रेणुका को भूख लगी तो दादी ने सोचा खाने के लिए कुछ फल ले लिए जाएँ। फल की दुकान सड़क के उस पार थी। इतने भीड़ में दोनों बच्चों को सड़क पार कराना कठिन होता इसीलिए दादी ने उन दोनों को दुकान के बाहर ही छोड़ा “बेटा, यहीं रहना, कान्हा के हाथ पकड़े रहना, मैं सामने फल खरीद रही हूँ।
दादी सड़क पार कर के रेड़ी पर पहुँची ही कि रेणुका पर संकट आ गया। अचानक बाज़ार में भगदड़ मच गयी। लोग घबरा कर इधर उधर भागने लगे। इस भगदड़ में किसी ने रेणुका को धक्का दिया और वह गिर पड़ी। सामने देखा तो एक अनियंत्रित सांड उसकी ओ दौड़ा चला आ रहा था। रेणुका इतनी भयभीत हो गयी कि चिल्ला भी न सकी। उसने कान्हा को कस कर अपने से चिपटा लिया, उसके सहमे हृदय से एक के बाद एक प्रार्थनाएँ फूट रहीं थीं। उसने कस कर अपनी आँखें बंद कर ली पर तभी मानो समय रुक गया। इसके बाद क्या हुआ, यह उसे नहीं याद रहा पर रेणुका को कोई हानि नहीं पहुँची थी, यह निश्चित था।
जब रेणुका की आँख खुली तो वह उसी दुकान के भीतर एक कुर्सी पर थी, कान्हा उसके सीने से वैसे ही चिपटा हुआ था। दादी दोनों बच्चों को बड़े प्यार से देख रहीं थी “ थक के सो गयी मेरी बच्ची, चल धर्मशाला चलते हैं”।
इन सभी दिनों रेणुका को बहुत आनंद आया। कान्हा दोनों से बहुत घुलमिल गया था और बड़ी शरारतें करता था। अपने हिस्से के दूध के साथ साथ रेणुका के हिस्से का दूध भी पी जाता। जब रेणुका अपने लिये ब्रेड और मक्खन मंगाती तो आधा मक्खन कान्हा चट कर जाता । रेणुका को उसे इस बात पर प्यार से झगड़ने में बड़ा मज़ा आता। वह कहती “ कान्हा, तू फिर मेरा मक्खन खा गया। आज अपनी चॉकलेट नहीं बाटूंगी तेरे साथ” और कान्हा हँसने लग जाता तो वह भी हँसने लग जाती।
दोनों बच्चे दिन भर पकड़ा-पकड़ी खेलते रहते।
इसी बीच तीनों द्वारकाधीश के मंदिर भी गए। दर्शन का आनंद अनूठा था पर आरती में रेणुका अचानक अस्वस्थ हो गयी । उसकी जीभ और उसका कण्ठ बुरी तरह सूखने लगा और पेट में मरोड़ें उठन लगीं। उसने अपना पेट पीड़ा से कस कर पकड़ लिया “ दादी मुझे ठीक नहीं लग रहा है”। दादी उसकी हालत देख कर बड़ी चिंतित हो गईं। उन्हों ने रेणुका को संभाला और मन ही मन प्रार्थना करने लगीं “ हे भगवान, यहाँ तो शुभ काम के लिए आएँ हैं, बच्ची को अस्वस्थ मत होने देना”। इतने में कान्हा दादी का आँचल खींचने लगा, उसके हाथ में एक लड्डू था। “दादी, मैं यह रेणुका को खिला दूँ?” कान्हा ने इतना कह कर लड्डू अपने हाथों से रेणुका के मुँह में डाल दिया। रेणुका ने अपनी आँखें बंद कर ली, इतना मीठा और स्वादिष्ट लड्डू उसने कभी नहीं खाया था। धीरे धीरे रेणुका की पीड़ा जाती रही और वह फर से सामान्य हो गयी। दोनों दादी पोती ने भगवान द्वारिकाधीश को धन्यवाद दिया तो कान्हा पुनः खिलखिला उठा और रेणुका से कहा " तुझे लड्डू मैं ने खिलाया", "हाँ कान्हा, थैंक यू" कह कर रेणुका ने हँस कर कान्हा को गले लगा लिया।
जल्दी ही द्वारिका- वास का आखिरी दिन आ पहुँचा, अगले दिन दोनों को अपने घर मुम्बई लौटना था। कल तो कान्हा को उस एन.जी.ओ को सौंपना ही पड़ेगा।
रेणुका बहुत दुखी हो गई। "कान्हा को तो हमें छोड़ना ही था न" उसकी दादी ने समझाया।
"पर कल से कान्हा नहीं होगा मेरे साथ खेलने के लिये, कौन खेलेगा मेरे साथ?" रेणुका यह कह कर रोने लगी।
"मैं खेलूँगा तेरे साथ" रेणुका ने पीछे मुड़ कर देखा तो कान्हा आकर उससे लिपट गया। उस समय रेणुका अपना सारा दुख भूल गई और कान्हा का पेट गुदगुदाने लगी ।
सोने का समय हुआ तो रेणुका कान्हा को अपने साथ सुलाने ले गयी। रेणुका और दादी एक बड़े वाले बिस्तर पर सोते थे और कान्हा बाजू के एक छोटे वाले बिस्तर पर।
रेणुका उसे बिस्तर पर लिटा कर उसके साथ ही बैठ गयी। वह बहुत देर रात तक वहीं बैठी रही। चंदा मामा आकाश में चमक रहे थे और उनकी किरणे खिड़की से भीतर आ कर दोनों बच्चों के सर पर पड़ रही थी। तभी रेणुका ने देखा की कान्हा का रंग एक सुंदर नीलमणि से नीला हो रहा था, जैसे वह साधारण बालक नहीं, साक्षात श्री कृष्ण हो।रेणुका चकित रह गयी, उसने अपनी आँखें कस कर मली, अगले ही क्षण आँखें खोली तो देखा कि कान्हा सोया हुआ है, वही साँवला सा प्यारा सा कान्हा। "कितना प्यारा है यह, अगर मेरा ऐसा कोई भाई होता तो मैं उसके साथ कभी झगड़ा नहीं करती, उसके साथ अपने सारे चॉकलेट, सारी किताबें , सारे खिलौने बांटती" रेणुका ने सोचा और सोचते सोचते वहीं कान्हा के साथ सो गयी।
आधी रात को रेणुका की नींद टूटी, उसने देखा तो कान्हा बिस्तर पर नहीं था। वह घबरा कर उठी और दादी के बिस्तर के पास गई। कान्हा वहाँ भी नहीं था। उसने पूरे कमरे में ढूंढा, सोफे पर,मेज़ के नीचे पर कान्हा कहीं नहीं था।
"तुम कहाँ हो कान्हा?" रेणुका ने रोते-रोते अपने आप से ही पूछा और फिर से कान्हा के बिस्तर की ओर मुड़ी, तभी उसे बिस्तर पर एक नीली चमक नज़र आई। उसने अपनी आँखें मली, फिर देखा। चमक अब भी वहाँ थी।
जब रेणुका बिस्तर के पास गई तो उसने देखा कि एक सुंदर सा मोर पंख वहाँ रखा हुआ है।
अब रेणुका को सारी बात समझ आ गयी। वह खुशी से नाच उठी पर अगले ही क्षण थोड़ी मायूस हो कर बैठ गयी।
उसने वह मोर पंख उठाया और अपने सिर से लगाया फिर अपने हृदय से।
उसने अपनी दादी से सुना था " सब की सहायता करो, कोई माँगने आये तो खाली मत लौटाओ, पता नहीं कब सहायता माँगने वाले के रूप में हरि आ जाएँ"। आज उसने देख भी लिया।
वह उस मोरपंख को लेकर अपने बिस्तर पर आ गयी। उसने अपने हाथ जोड़े और जितने दिन कान्हा के साथ रही , खेली, बातचीत की, उसके लिए कान्हा जी को बार- बार धन्यवाद दिया और उनके मोर पंख को अपने हृदय से लगा कर बड़े आनंदित मन से सो गई। इसके बाद रेणुका ने जीवन में कभी भी अकेलापन महसूस नहीं किया।
अनंता सिन्हा
२६ /०८ /२०२१
Thursday, July 1, 2021
वर्षा ऋतु
काले घनघोर बादलों ने आकाश को कंबल की तरह ढक रखा था। बरखा रानी अपने जल से पूरी पृथ्वी को स्नान कराने के लिये आतुर थी। नर्मदा नदी तरंगें लेती हुई और कल-कल नाद करती अपने तीव्र बहाव से बह रही थी।
बच्चों की बनी कागज़ की नाव नर्मदा नदी में स्थिर गति से चलती हुई नावों के मुकाबले बड़ी तेज़ी से बह रही थी, मानो यह प्रतियोगिता जीतने को ठान रखी हो। बच्चे मोर के समान आनंदित हो कर नाच रहे थे।
हवा तेज़ी से बह रही थी जिसके कारण उस छोटे से हनुमान मंदिर के दरवाज़े बार – बार खुल कर बंद हो रहे थे। हवा एक सच्चे आस्तिक की तरह मंदिर की घंटी बजा कर पुनः लौट जाती।
वहीं बारह साल की रेणुका अपनी हवेली के बाहर बारिश में भीगने का आनंद ले रही थी। वह मिट्टी और बारिश के पानी से बने तालाब में उछल – उछल कर खेल रही थी। खेलते - खेलते वह ये भी सोच रही थी “यदि मेरी कोई सहेली होती या मेरी कोई बहन होती तो खेलने में और मज़ा आता”।
प्रकृति अपने सब से सुंदर रूप में थी पर उस दीया-सलाई बेचने वाली लड़की के लिये ऐसा बिल्कुल नहीं था………..उसके लिये यह वर्षा विकराल थी। आज सुबह से उसका एक डिब्बा दीया-सलाई भी नहीं बिका था । वह सिर से पाँव तक भीगी हुई थी। उसके कपड़े फटे हुए थे और उसे बहुत ठंड लग रही थी। बारिश से बचने के लिए वह एक पीपल के पेड़ के नीचे जा बैठी । उसे भूख लगी तो उसने अपना हाथ पसार लिया पर वहीं बैठी रही, किसी से कुछ माँगा नहीं।
व्याकुल वह पहले से ही थी, ऐसे में मंदिर की घन्टी की आवाज़ उसे और भी विचलित और भयभीत कर रही थी।
तभी रेणुका की नज़र उस लड़की पर पड़ी। रेणुका के पास कुछ टॉफ़ियाँ थीं, वह उस लड़की के पास गई और एक टॉफी दी।
रेणुका ने लड़की के हाथ पर टॉफी रखी पर लड़की ने खाया नहीं, वह जस की तस अपने हाथ पसारे बैठी रही। उसके हाथ ठंड के कारण शिथिल हो गए थे और वह उन्हें मोड़ नहीं पा रही थी। थोड़ी देर बाद वह टॉफी उसके हाथ से फिसल कर गिर गयी।
रेणुका के मन में उसे देख कर दया, चिंता और प्रेम, तीनों भाव एक साथ ही आ गये। उसने उसे प्यार से पकड़ कर उठाया और अपने घर ले आई ।
घर का दरवाजा खटखटाने पर उसकी माँ ने दरवाज़ा खोला “अरे बेटा! ये तू अपने साथ किसे ले आयी?” उन्हों ने पूछा।
“वो..... माँ, इसे हमारी मदद की ज़रूरत है” रेणुका ने कहा। माँ देखते ही समझ गईं कि उस बच्ची को सहायता की बहुत जरूरत थी। उन्हों ने दोनों को अंदर लिया। “रेणुका, बेटा तू जा कर कपड़े बदल ले और इसके लिये भी अपने एक जोड़ी कपड़े ले आ" माँ ने कहा और फिर उसका का माथा चूम कर उसे शाबाशी दी।
रेणुका ने कपड़े बदल लिए पर वह लड़की ऐसा न कर पाई। उसके हाथ जो शिथिल थे।
माँ गर्म तेल लेकर आ गईं। रेणुका ने पहले उस लड़की के हाथों में तेल लगाया। तेल लगाते-लगाते उसने लड़की का नाम पूछा “क्या नाम है तुम्हारा?”” पर उसने कोई जवाब नहीं दिया। रेणुका ने फिर पूछा, इस बार उसने अपने स्वर को और मधुर बना कर पूछा “क्या नाम है तुम्हारा?” “लाली” उस लड़की ने धीरे से अपना नाम बताया।
गर्म तेल की मालिश से लाली के हाथ सक्रिय हो गए। उसने अपना हाथ बढ़ाया और अपने पैरों में तेल लगाने लगी। रेणुका ने भी अपने हाथ - पाँव में तेल लगाया। “जाओ लाली कपड़े बदल लो” रेणुका ने उसे अपने एक जोड़ी कपड़े और तौलिया देते हुए कहा।
लाली कपड़े बदल कर आ गई। रेणुका को अहसास हुआ कि लाली उसकी तरह ही एक लड़की है और सुंदर कपड़ों में उतनी ही सुंदर लगती है जितनी कि वह।
रेणुका के पिता ज़मींदार थे, वे धनवान और सहृदय थे। उन्होंने लाली को अपने पास बुला कर पूछा “तुम्हारे माता-पिता हैं बेटा और हैं तो कहाँ हैं?”
“माँ घर पर है, बाबू जी बाहर गए थे काम से पर कब से नहीं आये पर माँ कहती है एक दिन ज़रूर आएँगे"।
रेणुका ने अपना फ्रॉक कस कर पकड़ लिया, उसे इस वाक्य का अर्थ समझ आ गया और उसका कोमल मन विचलित हो गया।
“लाली, क्या तुम पढ़ना चाहोगी? मैं तुम्हारे रहन-सहन और पढ़ाई लिखाई का पूरा दायित्व लूँगा” रेणुका के पिता जी ने कहा।
“यही तो मेरी माँ ने नहीं सिखाया, पैसे तो मैं उस से लूँगी, जो मेरे दीया-सलाई खरीदेगा” लाली ने इनकार कर दिया।
“ठीक है, यदि ऐसी बात है तो कल तुम अपनी माँ को लेकर आ जाना,तुम दोनों इस घर के छोटे मोटे काम कर देना और फुर्सत के समय रेणुका के साथ खेल लिया करना।
लाली मुस्करा उठी। उसके होठ ही नहीं, उसकी आंखें भी मुस्कराईं।
अगले दिन वह अपनी माँ को लेकर रेणुका के घर पहुँच गयी। रेणुका के माता पिता ने उसको रसोई घर में हाथ बटाने के लिए रख दिया, हवेली के बाहर एक कोठरी में दोनों की रहने की व्यवस्था कर दी गयी। रेणुका खुशी से नाच उठी, उसे एक सहेली की तलाश थी वह उसे मिल गयी थी।
लाली अपने घर के लिये आर्थिक दायित्व से मुक्त हो गयी। वह रेणुका के साथ स्कूल पढ़ने जाती और आ कर दोनों सहेलियाँ खूब खेलतीं।
कुछ दिनों बाद दोनों लड़कियाँ बारिश में भीगने का आनंद ले रही थीं। दोनों ने खिलखिला कर एक दूसरे को गले लगा लिया, लाली को अब वर्षा ऋतु से भय नहीं लगता था।
© अनंता सिन्हा
०१.०७.२०२१
Thursday, May 6, 2021
भ्रष्टाचार
कहीं नहीं है शुद्ध और साफ़,
लोगों का
व्यवहार।
हर तरफ़
फैला है,
भ्रष्टाचार-ही-भ्रष्टाचार।
लोगों का व्यवहार।
हर तरफ़ फैला है,
भ्रष्टाचार-ही-भ्रष्टाचार।
जनता के सपने साकार,
काले भ्रष्टाचार का हाहाकार।
उन्होंने जनता के पैसे,
खाने नहीं सिखाये थे।
एक हैं सभी प्रान्त, सभी धर्म।
पर अकारण मतभेद करने में,
आती नहीं हमें शर्म।
लेते आम जनता को लूट।
कभी भी पूरे किए न जाते।
साल-साल कर बढ़ता जाता,
सदा पिस जाता है करदाता।
देश को लील रही महामारी।
फिर भी इनको सूझ रही,
साँसों की कालाबाज़ारी।
आज सत्य रहा है हार।
भ्रम में जीता आम- आदमी,
लुटते जनता के अधिकार ।
हर तरफ़ बढ़ती महंगाई,
पर कृषि
मंत्री से पूछो,
तो उन्हें
अब तक समझ न आई।
वे कहते
हैं " क्या मैं ज्योतिषी हूँ?
जो महँगाई
कब कम होगी,
ये बताता
फिरूँ।
यह तो देश की
सरकार का हाल है,
और जनता
बेहाल है ।
पर मित्रों,
कम से कम
तुम तो रखो,
अमर जवान
ज्योति की लाज।
भ्रष्टाचार
के खिलाफ,
उठाओ
आवाज़।
अनंता सिन्हा
06/05/2021
Friday, April 23, 2021
चुनचुन
आज कविता नहीं, एक कहानी डाल रही हूँ। कहानियाँ लिखती तो हूँ पर कभी डाला नहीं, आज पहला प्रयास है । आप सभी पाठक मुझ से बड़े हैं, आपने सदा मुझे प्रोत्साहन और आशीष दिया है। आज भी अपना आशीष और मार्गदर्शन दीजिएगा, मुझे बहुत प्रेरणा और शिक्षा मिलेगी ।
स्नेहा एक बहुत ही स्नेहिल और शांत स्वभाव की लड़की थी । वह सब के साथ मधुर व्यवहार करती और सदा दूसरों की सहायता करती। उसे प्रकृति से बड़ा प्रेम था और अपने स्कूल के बगीचे में हरियाली के बीच, फूलों और पक्षियों के साथ समय बिताना अच्छा लगता था।
जब कभी खेल- कूद का
समय होता या भोजन का अवकाश मिलता, स्नेहा और उसके मित्र बगीचे में जाया करते और वहाँ अपना समय बिताते। स्कूल का बगीचा बड़ा ही सुंदर और विशाल था। गुलाब, चमेली, चम्पा, जूही आदि कितने रंग-बिरंगे फूल अपनी छटा और खुशबू बिखेरते
थे, बड़े- बड़े फलदार वृक्ष अपनी छाया फैलाए रहते और उनके फलों की मीठी सुगंध हवा
में घुल कर हर ओर फैल जाती थी। इन में से कई वृक्ष बच्चों ने खुद लगाए थे ।
ऐसे में स्नेहा और उसके मित्रों की रुचि और आनंद के
लिए और कोई बेहतर स्थान नहीं होता। भोजन का अवकाश मिलते ही वे सभी बगीचे में पहुँच
जाते और किसी भी वृक्ष की छाया में बैठ कर भोजन करते। उसके बाद शुरू होता खेल-कूद
और विश्राम का कार्यक्रम।
स्नेहा और श्रेया घूम-घूम कर विविध फूलों को देखतीं
और सूँघतीं और पक्षियों का कलरव सुनतीं। तारा बैठ कर कोई पुस्तक पढ़ती, आकाश पेड़ पर
चढ़ कर आम और अमरूद तोड़ता और केशव आस-पास के पशु-पक्षियों का चित्र बनाता। इन्हीं
गतिविधियों के बीच वे बातचीत करते रहते या आपस में भाग-दौड़ कर खेलते ।
एक दिन स्नेहा स्कूल से घर
लौट रही थी कि उसे बगीचे से कुछ कोलाहल सुनाई दिया। वह दौड़ कर बगीचे में गई तो
देखा की एक कौआ एक छोटी सी चिड़िया पर अपनी चोंच से हमला कर रहा है और बाकी चिड़ियाँ उसके आस-पास घबराहट में चूँ -चूँ कर रहीं थीं ।
स्नेहा दौड़ कर उस तरफ जाने
लगी कि सहसा रुक गई। उसकी माँ ने उसे कौओं से सावधान रहने कहा था वो भी तब जब कोई
कौआ गुस्से में हो।
वह दुविधा में इधर-उधर देखने
लगी कि किससे सहायता माँगे, कि उसे अपने शंकर काका की याद आई। बगीचे का माली शंकर
बच्चों को अच्छी तरह से जनता था और कई बार उनकी मदद भी करता था।
स्नेहा भाग कर बगीचे के
दूसरी ओर गई जहाँ शंकर एक क्यारी बनाने में लगा था “शंकर काका.. शंकर काका, जल्दी
चलिए.. अपने साथ एक बड़ी सी छड़ी भी ले लीजिए, एक कौआ एक छोटी चिड़िया को चोंच मार रहा है , उसे चोट लग
जाएगी, वो उसे खा जाएगा ” कहते-कहते स्नेहा रूआँसी हो गई। शंकर काका उसके पीछे छड़ी लेकर दौड़े।
वहाँ पहुँचने पर काका ने कौए को हाँक मार कर और छड़ी घुमा कर वहाँ
से भगा दिया। दोनों उस चिड़िया के पास गए तब पता चला की एक छोटी सी आहत गौरैया
स्तब्ध पड़ी हुई थी। उसे चोट आई थी पर वह जीवित थी।
स्नेहा ने उसे बड़े प्यार से
अपनी हथेली में उठाया और प्यार करने लगी। कुछ देर तक तो वह गौरैया वैसे ही पड़ी रही फिर धीरे-
धीरे स्नेहा की हथेलियों की गर्मी से कुछ स्वस्थ हुई तो अपने पंख फड़फड़ाने लगी। “अरे वाह
चुनचुन, तू तो सच में जीवित है!” स्नेहा खुशी से खिल-खिला उठी। “काका, मैं ना इसे
अपने साथ ले जातीं हूँ, माँ इसको दवाई लगा देगी तो यह ठीक हो जाएगी” फिर एक प्यारी
सी मुस्कान मुस्कराकर शंकर काका को शुक्रिया कहा “आप बहुत अच्छे हैं काका, आप सब
से अच्छे माली काका हैं ”।
रास्ते भर स्नेहा
चुनचुन से बातें करती रही और उसे आश्वासन
देती रही, “चुनचुन, तू चिंता मत कर, मुझ से बिल्कुल नहीं डरना, मेरी माँ से भी मत
डरना । मैं तुम्हारी सब से अच्छी दोस्त बनूँगी, तुम्हें बहुत प्यार करूँगी, माँ तुमको
दवाई लगा कर जल्दी ठीक कर देगी फिर हम लोग खेलेंगे”।
जब घर आई तो उसने चुनचुन को
अपनी माँ को दिखाया और सारी आपबीती सुना दी। “मेरी समझदार और प्यारी बच्ची” माँ ने
स्नेहा के गालों पर प्यार से हाथ फेर कर उसे शाबाशी दी।
उसके बाद माँ ने चुनचुन की चोट को धोया और रुई से उसका घाव साफ किया। उसके बाद उसपर हल्दी का
एक लेप लगा दिया। “माँ इसे कोई दवा नहीं लगाओगी?” स्नेहा ने आश्चर्य से पूछा।
“बेटा, चिड़ियों को इंसानों
वाली दवा नहीं लगा सकते। हल्दी भी अच्छा असर ही करेगी। पता है, हल्दी कई बीमारियों
की औषधि है और सबसे बड़ा कीटाणुनाशक है”।
दोनों ने मिल कर चुनचुन को
थोड़ा सा दूध-भात मथ कर उसे खिलाने की
कोशिश की। चुनचुन अपनी छोटी सी चोंच खोलती तो स्नेहा खिलखिलाकर हँसने लगती और बड़े
प्यार से उसे थोड़ा- थोड़ा दूध- भात खिलाती
जाती और उसके सर पर हाथ फेरती जाती ।
“माँ, हम लोग इसका क्या
करेंगे ? चुनचुन अपने को अपने पास रख सकते
हैं क्या, बिना पिंजड़े के ?” स्नेहा ने पूछा ।
“अभी के लिए तो रख सकते हैं
पर सदा के लिए नहीं। पक्षियों को खुला आकाश अच्छा लगता है, वही उनके लिए हितकर है”
माँ ने समझाया ।
“हाँ, हमारी टीचर भी यही
कहतीं हैं पर इसको तो चोट आई है न ?” स्नेहा ने कहा। “शाम को तुम्हारे पापा घर आ
जाएं तब हम उन्हें चुनचुन से मिलवाएंगे,
इसे या तो कुछ दिन अपने पास रख कर छोड़ देना पड़ेगा या फिर किसी पशु-सेवा
संस्था में देना पड़ेगा जो इसका इलाज कर के इसे पुनः स्वास्थ कर देगी” माँ ने हँसते
हुए कहा।
माँ ने स्नेहा की चुनचुन से
मित्रता करने की इस बाल-सुलभ इच्छा को समझ लिया था ।
चुनचुन नए वातावरण में थोड़ी
सहमी हुई थी इसीलिए उसे और कहीं उठा कर ले जाना या बार- बार उठा कर प्यार करना
संभव नहीं था । उसे वहीं ड्राइंगरूम के
कोने में छोड़ दिया गया और स्नेहा बड़े धैर्य से उसके सामान्य होने की प्रतीक्षा में
उससे कुछ दूरी पर बैठी रही और उससे बातें करती रही “चुनचुन तू जल्दी से डरना छोड़
दे तब मैं तुझे पूरा घर दिखाऊँगी, अपना कमरा भी दिखाऊँगी, अपने चित्र दिखाऊँगी और स्कूल
की किताबें भी दिखाऊँगी”।
चुनचुन ने कितना समझा यह तो वही जाने पर स्नेहा की यह चबड़- चबड़ चलती रही और कुछ देर में चुनचुन चहक- चहक कर अपनी प्रतिक्रिया
भी देने लगी। वास्तव में चुनचुन स्नेहा की अवाज़
से परिचित होने लगी थी।
शाम को जब स्नेहा के पिताजी
घर आए तो उन्हें पूरे समारोह के साथ चुनचुन से मिलवाया गया। उनके घर में घूँसते ही
स्नेहा ने उन्हे सारी बातें बताना शुरू कर दिया और खींचते हुए चुनचुन के पास ले गई
।
पिता जी ने चुनचुन को ध्यान
से देखा फिर कहा “चोट बहुत बड़ी नहीं है पर थोड़ी गहरी है । लगता है तुम लोगों के
वहाँ पहुँचने के पहले इसने कौए से दो -तीन
बार मार खा ली है” उन्हों ने कहा । “तो अब आप क्या करेंगे पापा” स्नेहा ने पूछा ।
“मेरी बच्ची! मैं एक अच्छे
पशु-सेवा संस्था का पता करूँगा, तब तक तुम इसे अपने पास रख सकती हो” पिता जी ने
स्नेहा के सर पर हाथ फेरते हुए कहा।
“पापा आप बहुत अच्छे हैं,
सबसे अच्छे” स्नेहा उनसे खुशी से लिपट गई।
“अच्छा माँ, मैं चुनचुन को
उसका नया घर दिखा दूँ और मैं अपने दोस्तों को भी बुला लूँ इसे मिलने के लिए। अकेले
इसका मन नहीं लगेगा न” स्नेहा ने उत्साह में भर कर पूछा।
“हाँ बेटा, बुला लो” माँ ने
कहा।
इसके बाद स्नेहा ने चुनचुन
को अपनी हथेली पर बैठा कर पूरे घर में घुमाया और साथ-साथ चुनचुन को निर्देश देती
रही “ चुनचुन, यह देखो, यह पूजा घर, यहाँ मत आना और आना भी तो गंदगी मत फैलाना और
कुछ गिराना मत.. और रसोई में भी नहीं जाना, वहाँ हमारा खाना बनता
है और स्टोव पर आग जलती है, बाकी
यह पूरा घर तुम्हारा है पर हाँ चलते हुए पंखे से मत टकराना, तुम्हें और चोट लग
जाएगी” और अंत में अपने कमरे में लाकर मेज़ पर रखी, अपनी गुड़िया के पास बैठा दिया । चुनचुन
पूरे समय जोर-जोर से चहक कर स्नेहा की हथेलियों पर फुदकती रही ।
स्नेहा के मित्र जब घर आए तब बाल-मंडली का काम शुरू हुआ । पहले तो एक-एक
करके सबने उसे अपना नाम बताया, उसे प्यार किया फिर उसे थोड़ा-थोड़ा दूध-भात
खिलाया। इसके बाद सब चुनचुन के लिए रहने
की जगह बनाने में लग गए । स्नेहा के पास एक छोटी सी टोकरी थी, श्रेया ने बड़े ध्यान
से उसपर रुई बिछाई, आकाश और केशव आस पास के पेड़ -पौधों से पत्ते और टहनी तोड़ लाए
और उसे भी टोकरी में डाल दिया। तारा अपने घर से एक रिबन लाई थी जिसे टोकरी में
घुसा कर, उसके सहारे टोकरी को कमरे में
लगी एक कील से टांग दिया गया। “ अब उसे अपने घोंसले की याद नहीं आएगी और वो नहीं
रोएगी” सब बच्चों ने एक साथ बड़े संतोष से
कहा और इस तरह उन आठ साल के बच्चों ने
चुनचुन को खुश रखने का प्रबंध कर दिया।
चुनचुन दो दिनों तक स्नेहा
के साथ रही। ये दो दिन इस घर में इतनी हलचल रहती मानों कोई चिड़िया नहीं, घर में एक
नवजात शिशु आ गया हो ।सुबह-सुबह स्नेहा को अलार्म क्लॉक की जगह चुनचुन की चहक ने
जगाया। स्नेहा के सारे मित्र स्नान करके
उसके घर पहुँच जाते फिर बारी-बारी से चुनचुन को प्यार करते, खिलाते , पानी पिलाते
और उसके साथ खूब खेलते।
चुनचुन को अब इतने सारे
मनुष्यों के बीच रहने की आदत हो गई, वह अपने नए
घोंसले में बैठ कर ज़ोर – ज़ोर से
चहकती और स्नेहा को बुलाती । उसे और उसके मित्रों
को कमरे में आते देख कर अपने पंख फरफराकर उनका स्वागत करती और अपने घोसले
से बाहर पूरे घर भर में फुदक -फुदक कर घूमती
और बड़ी शरारतें करती । कभी जाकर
माँ की गोद में बैठ जाती तो कभी पिताजी के कंधे पर और कभी जब स्नेहा पढ़ाई करती, तो
उसके मेज पर उसकी किताबों पर बैठ जाती और चहक-चहक कर सबका ध्यान अपनी ओर खींचती। पूरे घर में आनंद छाया रहा पर उसके बाद उसे जाना
पड़ा।
स्नेहा के पिताजी ने एक
अच्छे संस्था का पता कर लिया था और उसे उसके नए घोंसले समेत वहीं छोड़ आए । चुनचुन
के जाने के बाद स्नेहा बहुत उदास हो गई। उसका या उसके दोस्तों का किसी भी खेल-कूद
में मन नहीं लगता, यहाँ तक की स्कूल के
बगीचे में भी नहीं। वैसे तो बगीचे में बहुत से पक्षी थे पर उनमें से कोई भी चुनचुन
का स्थान नहीं ले सकता था ।
कुछ दिन बीते और फिर हफ्ते, और परीक्षाएं सर पर आ गईं । सभी बच्चे पढ़ाई में व्यस्त हो गए और फिर धीरे-धीरे सब
कुछ भूल कर वापस हँसने - खेलने लगे।
एक दिन जब पांचों बच्चे
बगीचे में खेल रहे थे , उन्हें किसी चिड़िया के जोर-जोर से चहचहाने की अवाज़ आई ।
उन्हों ने उस वृक्ष की ओर देखा तो एक गौरैया उसकी टहनी पर बैठ कर चहचहा रही
थी। “चुनचुन !!!” बच्चों ने उसे तुरंत
पहचान लिया ।
चुनचुन तेज़ी से उड़ कर उनके निकट आई और उनके आस-पास मंडराने लगी
फिर बारी -बारी से स्नेहा के कंधे पर बैठी फिर श्रेया के और फिर तारा की उंगलियों
पर और आकाश और केशव के सर पर । बच्चे तो
फूले नहीं समा रहे थे ।
“अरे चुनचुन, हमलोग तुझे याद
हैं !” स्नेहा ने पूछा, “हाँ, मुझे लगा तू हमें भूल जाएगी” केशव ने कहा। इसके उत्तर में चुनचुन फिर से चहक-चहक कर उन सब
के पास मंडराने लगी, मानों उन सब का आभार मान रही हो और उसके बाद वहाँ से उड़ कर आम
के पेड़ की एक ऊंची टहनी पर बैठ गई तब बच्चों ने देखा की चुनचुन ने अपना एक घोंसला
बनाया था और उसने दो प्यारे-प्यारे चूज़े
भी दिए थे।
अब बच्चों की दिनचर्या में
चुनचुन सदा के लिए शामिल हो गई। वे रोज उसके लिए दाना लेकर आते और उसे खिलाते
और चुनचुन के साथ खेलते या उसके बच्चों की निगरानी करते। धीरे-धीरे चुनचुन के बच्चे बड़े हुए और चुनचुन
उन्हें उड़ना सिखाने लगी। छोटे चूज़े फुदक-फुदक कर माँ के साथ उड़ने का प्रयास करते
और एक दिन अपने पंख फैला कर मुक्त आकाश में उड़ गए पर चुनचुन ने वो बसेरा नहीं
छोड़ा। वह वहीं रह गई अपने छोटे मित्रों के साथ। शायद चुनचुन को भी उन बच्चों से उतना ही
लगाव था जितना उन्हें चुनचुन से।
©अनंता सिन्हा
२३.०४.२०२१
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