आज कविता नहीं, एक कहानी डाल रही हूँ। कहानियाँ लिखती तो हूँ पर कभी डाला नहीं, आज पहला प्रयास है । आप सभी पाठक मुझ से बड़े हैं, आपने सदा मुझे प्रोत्साहन और आशीष दिया है। आज भी अपना आशीष और मार्गदर्शन दीजिएगा, मुझे बहुत प्रेरणा और शिक्षा मिलेगी ।
जब कभी खेल- कूद का
समय होता या भोजन का अवकाश मिलता, स्नेहा और उसके मित्र बगीचे में जाया करते और वहाँ अपना समय बिताते। स्कूल का बगीचा बड़ा ही सुंदर और विशाल था। गुलाब, चमेली, चम्पा, जूही आदि कितने रंग-बिरंगे फूल अपनी छटा और खुशबू बिखेरते
थे, बड़े- बड़े फलदार वृक्ष अपनी छाया फैलाए रहते और उनके फलों की मीठी सुगंध हवा
में घुल कर हर ओर फैल जाती थी। इन में से कई वृक्ष बच्चों ने खुद लगाए थे ।
ऐसे में स्नेहा और उसके मित्रों की रुचि और आनंद के
लिए और कोई बेहतर स्थान नहीं होता। भोजन का अवकाश मिलते ही वे सभी बगीचे में पहुँच
जाते और किसी भी वृक्ष की छाया में बैठ कर भोजन करते। उसके बाद शुरू होता खेल-कूद
और विश्राम का कार्यक्रम।
स्नेहा और श्रेया घूम-घूम कर विविध फूलों को देखतीं
और सूँघतीं और पक्षियों का कलरव सुनतीं। तारा बैठ कर कोई पुस्तक पढ़ती, आकाश पेड़ पर
चढ़ कर आम और अमरूद तोड़ता और केशव आस-पास के पशु-पक्षियों का चित्र बनाता। इन्हीं
गतिविधियों के बीच वे बातचीत करते रहते या आपस में भाग-दौड़ कर खेलते ।
एक दिन स्नेहा स्कूल से घर
लौट रही थी कि उसे बगीचे से कुछ कोलाहल सुनाई दिया। वह दौड़ कर बगीचे में गई तो
देखा की एक कौआ एक छोटी सी चिड़िया पर अपनी चोंच से हमला कर रहा है और बाकी चिड़ियाँ उसके आस-पास घबराहट में चूँ -चूँ कर रहीं थीं ।
स्नेहा दौड़ कर उस तरफ जाने
लगी कि सहसा रुक गई। उसकी माँ ने उसे कौओं से सावधान रहने कहा था वो भी तब जब कोई
कौआ गुस्से में हो।
वह दुविधा में इधर-उधर देखने
लगी कि किससे सहायता माँगे, कि उसे अपने शंकर काका की याद आई। बगीचे का माली शंकर
बच्चों को अच्छी तरह से जनता था और कई बार उनकी मदद भी करता था।
स्नेहा भाग कर बगीचे के
दूसरी ओर गई जहाँ शंकर एक क्यारी बनाने में लगा था “शंकर काका.. शंकर काका, जल्दी
चलिए.. अपने साथ एक बड़ी सी छड़ी भी ले लीजिए, एक कौआ एक छोटी चिड़िया को चोंच मार रहा है , उसे चोट लग
जाएगी, वो उसे खा जाएगा ” कहते-कहते स्नेहा रूआँसी हो गई। शंकर काका उसके पीछे छड़ी लेकर दौड़े।
वहाँ पहुँचने पर काका ने कौए को हाँक मार कर और छड़ी घुमा कर वहाँ
से भगा दिया। दोनों उस चिड़िया के पास गए तब पता चला की एक छोटी सी आहत गौरैया
स्तब्ध पड़ी हुई थी। उसे चोट आई थी पर वह जीवित थी।
स्नेहा ने उसे बड़े प्यार से
अपनी हथेली में उठाया और प्यार करने लगी। कुछ देर तक तो वह गौरैया वैसे ही पड़ी रही फिर धीरे-
धीरे स्नेहा की हथेलियों की गर्मी से कुछ स्वस्थ हुई तो अपने पंख फड़फड़ाने लगी। “अरे वाह
चुनचुन, तू तो सच में जीवित है!” स्नेहा खुशी से खिल-खिला उठी। “काका, मैं ना इसे
अपने साथ ले जातीं हूँ, माँ इसको दवाई लगा देगी तो यह ठीक हो जाएगी” फिर एक प्यारी
सी मुस्कान मुस्कराकर शंकर काका को शुक्रिया कहा “आप बहुत अच्छे हैं काका, आप सब
से अच्छे माली काका हैं ”।
रास्ते भर स्नेहा
चुनचुन से बातें करती रही और उसे आश्वासन
देती रही, “चुनचुन, तू चिंता मत कर, मुझ से बिल्कुल नहीं डरना, मेरी माँ से भी मत
डरना । मैं तुम्हारी सब से अच्छी दोस्त बनूँगी, तुम्हें बहुत प्यार करूँगी, माँ तुमको
दवाई लगा कर जल्दी ठीक कर देगी फिर हम लोग खेलेंगे”।
जब घर आई तो उसने चुनचुन को
अपनी माँ को दिखाया और सारी आपबीती सुना दी। “मेरी समझदार और प्यारी बच्ची” माँ ने
स्नेहा के गालों पर प्यार से हाथ फेर कर उसे शाबाशी दी।
उसके बाद माँ ने चुनचुन की चोट को धोया और रुई से उसका घाव साफ किया। उसके बाद उसपर हल्दी का
एक लेप लगा दिया। “माँ इसे कोई दवा नहीं लगाओगी?” स्नेहा ने आश्चर्य से पूछा।
“बेटा, चिड़ियों को इंसानों
वाली दवा नहीं लगा सकते। हल्दी भी अच्छा असर ही करेगी। पता है, हल्दी कई बीमारियों
की औषधि है और सबसे बड़ा कीटाणुनाशक है”।
दोनों ने मिल कर चुनचुन को
थोड़ा सा दूध-भात मथ कर उसे खिलाने की
कोशिश की। चुनचुन अपनी छोटी सी चोंच खोलती तो स्नेहा खिलखिलाकर हँसने लगती और बड़े
प्यार से उसे थोड़ा- थोड़ा दूध- भात खिलाती
जाती और उसके सर पर हाथ फेरती जाती ।
“माँ, हम लोग इसका क्या
करेंगे ? चुनचुन अपने को अपने पास रख सकते
हैं क्या, बिना पिंजड़े के ?” स्नेहा ने पूछा ।
“अभी के लिए तो रख सकते हैं
पर सदा के लिए नहीं। पक्षियों को खुला आकाश अच्छा लगता है, वही उनके लिए हितकर है”
माँ ने समझाया ।
“हाँ, हमारी टीचर भी यही
कहतीं हैं पर इसको तो चोट आई है न ?” स्नेहा ने कहा। “शाम को तुम्हारे पापा घर आ
जाएं तब हम उन्हें चुनचुन से मिलवाएंगे,
इसे या तो कुछ दिन अपने पास रख कर छोड़ देना पड़ेगा या फिर किसी पशु-सेवा
संस्था में देना पड़ेगा जो इसका इलाज कर के इसे पुनः स्वास्थ कर देगी” माँ ने हँसते
हुए कहा।
माँ ने स्नेहा की चुनचुन से
मित्रता करने की इस बाल-सुलभ इच्छा को समझ लिया था ।
चुनचुन नए वातावरण में थोड़ी
सहमी हुई थी इसीलिए उसे और कहीं उठा कर ले जाना या बार- बार उठा कर प्यार करना
संभव नहीं था । उसे वहीं ड्राइंगरूम के
कोने में छोड़ दिया गया और स्नेहा बड़े धैर्य से उसके सामान्य होने की प्रतीक्षा में
उससे कुछ दूरी पर बैठी रही और उससे बातें करती रही “चुनचुन तू जल्दी से डरना छोड़
दे तब मैं तुझे पूरा घर दिखाऊँगी, अपना कमरा भी दिखाऊँगी, अपने चित्र दिखाऊँगी और स्कूल
की किताबें भी दिखाऊँगी”।
चुनचुन ने कितना समझा यह तो वही जाने पर स्नेहा की यह चबड़- चबड़ चलती रही और कुछ देर में चुनचुन चहक- चहक कर अपनी प्रतिक्रिया
भी देने लगी। वास्तव में चुनचुन स्नेहा की अवाज़
से परिचित होने लगी थी।
शाम को जब स्नेहा के पिताजी
घर आए तो उन्हें पूरे समारोह के साथ चुनचुन से मिलवाया गया। उनके घर में घूँसते ही
स्नेहा ने उन्हे सारी बातें बताना शुरू कर दिया और खींचते हुए चुनचुन के पास ले गई
।
पिता जी ने चुनचुन को ध्यान
से देखा फिर कहा “चोट बहुत बड़ी नहीं है पर थोड़ी गहरी है । लगता है तुम लोगों के
वहाँ पहुँचने के पहले इसने कौए से दो -तीन
बार मार खा ली है” उन्हों ने कहा । “तो अब आप क्या करेंगे पापा” स्नेहा ने पूछा ।
“मेरी बच्ची! मैं एक अच्छे
पशु-सेवा संस्था का पता करूँगा, तब तक तुम इसे अपने पास रख सकती हो” पिता जी ने
स्नेहा के सर पर हाथ फेरते हुए कहा।
“पापा आप बहुत अच्छे हैं,
सबसे अच्छे” स्नेहा उनसे खुशी से लिपट गई।
“अच्छा माँ, मैं चुनचुन को
उसका नया घर दिखा दूँ और मैं अपने दोस्तों को भी बुला लूँ इसे मिलने के लिए। अकेले
इसका मन नहीं लगेगा न” स्नेहा ने उत्साह में भर कर पूछा।
“हाँ बेटा, बुला लो” माँ ने
कहा।
इसके बाद स्नेहा ने चुनचुन
को अपनी हथेली पर बैठा कर पूरे घर में घुमाया और साथ-साथ चुनचुन को निर्देश देती
रही “ चुनचुन, यह देखो, यह पूजा घर, यहाँ मत आना और आना भी तो गंदगी मत फैलाना और
कुछ गिराना मत.. और रसोई में भी नहीं जाना, वहाँ हमारा खाना बनता
है और स्टोव पर आग जलती है, बाकी
यह पूरा घर तुम्हारा है पर हाँ चलते हुए पंखे से मत टकराना, तुम्हें और चोट लग
जाएगी” और अंत में अपने कमरे में लाकर मेज़ पर रखी, अपनी गुड़िया के पास बैठा दिया । चुनचुन
पूरे समय जोर-जोर से चहक कर स्नेहा की हथेलियों पर फुदकती रही ।
स्नेहा के मित्र जब घर आए तब बाल-मंडली का काम शुरू हुआ । पहले तो एक-एक
करके सबने उसे अपना नाम बताया, उसे प्यार किया फिर उसे थोड़ा-थोड़ा दूध-भात
खिलाया। इसके बाद सब चुनचुन के लिए रहने
की जगह बनाने में लग गए । स्नेहा के पास एक छोटी सी टोकरी थी, श्रेया ने बड़े ध्यान
से उसपर रुई बिछाई, आकाश और केशव आस पास के पेड़ -पौधों से पत्ते और टहनी तोड़ लाए
और उसे भी टोकरी में डाल दिया। तारा अपने घर से एक रिबन लाई थी जिसे टोकरी में
घुसा कर, उसके सहारे टोकरी को कमरे में
लगी एक कील से टांग दिया गया। “ अब उसे अपने घोंसले की याद नहीं आएगी और वो नहीं
रोएगी” सब बच्चों ने एक साथ बड़े संतोष से
कहा और इस तरह उन आठ साल के बच्चों ने
चुनचुन को खुश रखने का प्रबंध कर दिया।
चुनचुन दो दिनों तक स्नेहा
के साथ रही। ये दो दिन इस घर में इतनी हलचल रहती मानों कोई चिड़िया नहीं, घर में एक
नवजात शिशु आ गया हो ।सुबह-सुबह स्नेहा को अलार्म क्लॉक की जगह चुनचुन की चहक ने
जगाया। स्नेहा के सारे मित्र स्नान करके
उसके घर पहुँच जाते फिर बारी-बारी से चुनचुन को प्यार करते, खिलाते , पानी पिलाते
और उसके साथ खूब खेलते।
चुनचुन को अब इतने सारे
मनुष्यों के बीच रहने की आदत हो गई, वह अपने नए
घोंसले में बैठ कर ज़ोर – ज़ोर से
चहकती और स्नेहा को बुलाती । उसे और उसके मित्रों
को कमरे में आते देख कर अपने पंख फरफराकर उनका स्वागत करती और अपने घोसले
से बाहर पूरे घर भर में फुदक -फुदक कर घूमती
और बड़ी शरारतें करती । कभी जाकर
माँ की गोद में बैठ जाती तो कभी पिताजी के कंधे पर और कभी जब स्नेहा पढ़ाई करती, तो
उसके मेज पर उसकी किताबों पर बैठ जाती और चहक-चहक कर सबका ध्यान अपनी ओर खींचती। पूरे घर में आनंद छाया रहा पर उसके बाद उसे जाना
पड़ा।
स्नेहा के पिताजी ने एक
अच्छे संस्था का पता कर लिया था और उसे उसके नए घोंसले समेत वहीं छोड़ आए । चुनचुन
के जाने के बाद स्नेहा बहुत उदास हो गई। उसका या उसके दोस्तों का किसी भी खेल-कूद
में मन नहीं लगता, यहाँ तक की स्कूल के
बगीचे में भी नहीं। वैसे तो बगीचे में बहुत से पक्षी थे पर उनमें से कोई भी चुनचुन
का स्थान नहीं ले सकता था ।
कुछ दिन बीते और फिर हफ्ते, और परीक्षाएं सर पर आ गईं । सभी बच्चे पढ़ाई में व्यस्त हो गए और फिर धीरे-धीरे सब
कुछ भूल कर वापस हँसने - खेलने लगे।
एक दिन जब पांचों बच्चे
बगीचे में खेल रहे थे , उन्हें किसी चिड़िया के जोर-जोर से चहचहाने की अवाज़ आई ।
उन्हों ने उस वृक्ष की ओर देखा तो एक गौरैया उसकी टहनी पर बैठ कर चहचहा रही
थी। “चुनचुन !!!” बच्चों ने उसे तुरंत
पहचान लिया ।
चुनचुन तेज़ी से उड़ कर उनके निकट आई और उनके आस-पास मंडराने लगी
फिर बारी -बारी से स्नेहा के कंधे पर बैठी फिर श्रेया के और फिर तारा की उंगलियों
पर और आकाश और केशव के सर पर । बच्चे तो
फूले नहीं समा रहे थे ।
“अरे चुनचुन, हमलोग तुझे याद
हैं !” स्नेहा ने पूछा, “हाँ, मुझे लगा तू हमें भूल जाएगी” केशव ने कहा। इसके उत्तर में चुनचुन फिर से चहक-चहक कर उन सब
के पास मंडराने लगी, मानों उन सब का आभार मान रही हो और उसके बाद वहाँ से उड़ कर आम
के पेड़ की एक ऊंची टहनी पर बैठ गई तब बच्चों ने देखा की चुनचुन ने अपना एक घोंसला
बनाया था और उसने दो प्यारे-प्यारे चूज़े
भी दिए थे।
अब बच्चों की दिनचर्या में
चुनचुन सदा के लिए शामिल हो गई। वे रोज उसके लिए दाना लेकर आते और उसे खिलाते
और चुनचुन के साथ खेलते या उसके बच्चों की निगरानी करते। धीरे-धीरे चुनचुन के बच्चे बड़े हुए और चुनचुन
उन्हें उड़ना सिखाने लगी। छोटे चूज़े फुदक-फुदक कर माँ के साथ उड़ने का प्रयास करते
और एक दिन अपने पंख फैला कर मुक्त आकाश में उड़ गए पर चुनचुन ने वो बसेरा नहीं
छोड़ा। वह वहीं रह गई अपने छोटे मित्रों के साथ। शायद चुनचुन को भी उन बच्चों से उतना ही
लगाव था जितना उन्हें चुनचुन से।
©अनंता सिन्हा
२३.०४.२०२१